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विवाह की वैभवशाली परंपरा


 क्या है विवाह?
सात्विक परम्पराओं का उपहार है विवाह, दो गोत्रों-परिवारों का त्यौहार है विवाह ।
वैदिक-धार्मिक-पुनित संस्कार है विवाह, गृहस्थ जीवन का प्रवेशद्वार है विवाह । ।
दो आत्माओं के मिला का आधार है विवाह, प्रेम-विश्वास-समर्पण का संसार है विवाह ।
भावनाओं और सपनों का श्रृंगार है विवाह, दंपत्ति सम्बन्धन का मुनहार है विवाह । ।

छत्तीसगढ़ की परंपराओं में विवाह का अपना विशिष्ट स्थान है। विवाह जीवन के 16 संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में निहित है कई रस्मों-रिवाज। आखिर क्यों करते हैं हम रस्म? क्या है इसकी महत्ता? इन सबके उत्तर छुपे हैं वैवाहिक संस्कार के पृष्ठों में। रस्मों के दर्शन और उद्देश्य बताने का प्रयास है वैवाहिक संस्कार का यह छोटा सा झलक -

मंगनी (सगाई)
सगा शब्द का विस्तार है सगाई - आत्मीयता और घनिष्टता का संगम। दो परिवारों के सगा बनने अर्थात रिश्तेदार बनने का संस्कार है सगाई। इसे मंगनी भी कहते हैं। यह विवाह की प्रथम सीढी है। चूंकि इसमें दो परिवार नये रिश्ते जोड़ने के लिए वचनबद्ध होते हैं इसलिए इस रस्म को 'वाग्दान' भी  कहते हैं। इस रस्म में कन्या का हाथ मांगने वर पक्ष का मुखिया वस्त्र, आभूषण व कलेवा लेकर जाता है। इस अवसर पर अंगूठी पहनाने एवं भेंट देने की परंपरा भी प्रचलित है। हर्षोल्लास के बीच दो परिवारों के परिचय के साथ दो इंसानों के हमसफर बनने की शुरूआत है - सगाई।

मड़वा (मंडपाच्छादन)
हरीतिमा का प्रतीक है मड़वा। इसे हरियर मड़वा भी कहते हैं।इसकी शीतल छांव में रिश्तों की दूरियां समाप्त हो जाती है। डूमर, चिरई जाम (जामुन), आम या महुआ की हरी-भरी डालियों से मड़वा का आच्छादन किया जाता है, जो उमंग, उल्लास व उत्साह का प्रतीक है। सबसे पहले घर के बड़े-बुजुर्ग पूजा घर में कलशा स्थापित कर कुल देवी-देवता के सामने दीप प्रज्वलित करते हैं। नारियल रखकर, हूम देकर, साड़ी-धोती एवं सुहाग का सामान रखते हैं। पश्‍चात शक्ति पूजा, नवग्रह पूजा, पृथ्वी व पितरों की पूजा एवं आव्हानकर मड़वा के लिए गड्ढा खोदा जाता है। एक मड़वा में दो बांस को ढेड़हा के साथ 7 हाथ मिलाकर गड़ाते हैं। इसप्रकार मंडप में दो मड़वा गड़ाये जाते हैं। इस मड़वा के तले विवाह के सभी रस्म सम्पन्न होते हैं।

चुलमाटी
मंडपाच्छादन के बाद दामाद या फूफा के साथ वर-वधू की माँ, चाची या बड़ी माँ देवस्थल या गांव के उस स्थल से 7 टोकरी में मिट्टी लाते हैं जहां कोई फसल न उगी हो अर्थात - कुंवारी मिट्टी। पूजा-पाठ करके मिट्टी खुदाई का कार्य दामाद या फूफा करते हैं। माँ, चाची या बड़ी माँ उस मिट्टी को अपने आंचल में लेती हैं और सम्मान पूर्वक बाजे-गाजे के साथ उस मिट्टी को घर लाकर उससे चूल्हा निर्मित करते हैं। इस नेंग का आशय है कि देव स्थल की मिट्टी से निर्मित चूल्हे का भोजन, पकवान आशीष से भरा हो।

तेलमाटी
यह भी चुलमाटी की तरह देवस्थल या गांव में निर्धारित स्थल से लाया जाता है। इस मिट्टी को मड़वा के नीचे रखा जाता है। जिसके ऊपर मड़वा बांस व मंगरोहन स्थापित होता है। इस रस्म के पीछे मड़वा स्थल पर देवताओं के वास का भाव है।

मंगरोहन
मंगरोहन शब्द मंगल + आरोहन से बना है। इसमें डूमर या चार की लकड़ी को पूजा करके लाया जाता है। तथा बैगा या बढ़ई के घर मंगरोहन का स्वरूप देने के लिए भेजा जाता है। निर्माण पश्‍चात बाजे-गाजे के साथ बैगा या बढ़ई के घर से मंगरोहन को परघाकर मड़वा स्थल तक लाया जाता है। यहां छिंद की पत्ती का तेलमौरी बनाकर उसमें बांधते हैं तथा मड़वा के तले स्थापित करते हैं। सर्वप्रथम दुल्हा-दुल्हन की शादी मंगरोहन के साथ होती है ताकि किसी प्रकार का अनिष्ठ न हो। मंगरोहन मूलतः मंगल काष्ठ है।

मायन (मातृकापूजन)
इस रस्म में सप्त मातृकाओं की पूजा होती है। यथा गोमातृका, तृणमातृका, मृयमातृका, तुंगमातृका, जलमातृका, तोरणमातृका एवं मंडपमातृका इन सप्त मातृकाओं की विवाह में अहम भूमिका होती है। इसी दिन देवतेला का नेंग होता है। जिसमें देवी-देवताओं को तेल-हल्दी चढ़ाते हैं और शेष तेल-हल्दी को वर-वधू को चढ़ाते हैं ताकि विवाह निर्विध्न संपादित हो। संध्या काल हरदाही खेलते हैं। जिसमें चिकट का नेंग होता है। मामा पक्ष से वस्त्र, उपहार आदि वर-वधू के माता-पिता के लिए आता है, इसे भेंटकर हल्दी लगाते हैं। जिसका आशय आपस में मधुरता बढ़ाने से है। इसी समय रिश्तेदारों का आपस में परिचय भी होता है।

नहडोरी
नहडोरी अर्थात स्नान। वर-वधू के लेपित हल्दी को धुलाने का कार्यक्रम है नहडोरी। रस्म अनुसार वर-वधू को स्नान कराया जाता है ताकि बारात व भांवर के लिए वर-वधू को सजाया-संवारा जा सके। नहडोरी के बाद मौली धागा को घुमाकर वर-वधू के हाथों में आम पत्ता के साथ बांधते हैं। इसी को कंकन कहते हैं।

मौर सौंपना
मौर का अर्थ होता है मुकुट राजा-महाराजाओं कका श्रृंगार तथा जिम्मेदारी का प्रतीक। मौर धारण कर दुल्हा, राजा बन जाता है इसलिए इन्हें दुल्हा राजा भी कहते हैं। मौर सौंपने का आशय वर को भावी जीवन के लिए आशीष व उत्तरदायित्व प्रदान करना है। इस रस्म में बारात प्रस्थान के पूर्व वर को पूजा घर में वस्त्रादि से सजाकर सुवासा मौर बांधता है। आंगन में चौक पूरकर पीढा रखते हैं, वर को उस पर खड़ाकर या कुर्सी में बिठाकर सर्वप्रथम माँ पश्चात काकी, मामी, बड़ी बहनें व सुवासिन सहित 7 महिलाएं मौर सौंपती है।

बारात
बारात अर्थात वर यात्रा। वर पक्ष का वधू के घर विवाह हेतु जाने का रस्म है बारात। दुल्हे के रिश्तेदारों के साथ-साथ मित्र व गांव के लोग इस यात्रा के यात्री होते हैं, इन्हें बाराती कहते हैं। बाराती मूलतः विवाह के साक्षी होते हैं, जिनके समक्ष वर-वधू का पाणिग्रहण व फेरा होता है। बारातियों का वधू पक्ष की ओर से जोर शोर से स्वागत किया जाता है। दोनों पक्ष के समधियों का मिलन होता है जिसे समधी भेंट कहते हैं।

पाणिग्रहण
पाणि + ग्रहण अर्थात हाथ स्वीकार करना। इस रस्म में वधू के पिता वर के हाथ में वधू का हाथ रखकर तथा उसमें आटे का लोई रखकर धागे से बांधते हैं। तत्पश्‍चात वर तथा वधू के पैर के अंगूठों को दूध से धोकर माथे पर चांवल टिकते हैं। यह विवाह का महत्वपूर्ण रस्म जिसमें वर द्वारा वधू को ताउम्र जिम्मेदारी निभाने तथा वधू का समर्पण का भाव निहित है।

भांवर (फेरा)
भांवर महज परिक्रमा नहीं है, हर भांवर के साथ वधू को अपने बचपन के आंगन से बिछुड़ने का अहसास होता है और प्रत्येक भांवर अनजाने से नाता जुड़ने का बोध कराता है। इस रस्म में मड़वा के बीच रखी सील पर चांवल की 7 कुढ़ी के साथ हल्दी, सिंघोलिया व सुपाड़ी रखते हैं। वधू आगे व वर पीछे रहते हुए सील की परिक्रमा करते हैं। प्रत्येक परिक्रमा के बाद वर, वधू के पैर का अंगूठा पकड़कर 1 कुढ़ी गिराता है। लड़की का भाई लड़की की हथेली में लाई डालता है, लड़की इसे गिराती है। इस प्रकार 6 भांवर सील के चारों ओर और सातवां भांवर मड़वा के चारों ओर दोनों घूमते हैं। इस रस्म में प्रयुक्त सील यज्ञ भगवान का तथा लाई पतिव्रता का प्रतीक है।

मांग भरना
सिंदूर सुहाग का प्रतीक है। मांग भरने के बाद वधू सुहागिन हो जाती है तथा पतिव्रता धर्म पालन के लिए प्रतिबद्ध हो जाती है। इस रस्म में वर द्वारा वधू के मांग में 7 बार बंदन या सिंदूर लगाया जाता है। तत्पश्‍चात पण्डित द्वारा साखोचार होता है। वामांग में आने के पूर्व वधू वर से सात वचन मांगती है, जिस पर ध्रुव-तारे, अग्नि, बाराती तथा घराती को साक्षी मानकर वर, वधू को सात वचन देता है -

सात वचन
1. तीर्थ, व्रत, उद्यापन, यज्ञ, दान आदि सभी कार्य मेरे साथ करने का वचन डो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी अर्थात पत्‍नी बनूंगी।
2. यदि तुम हविष्यान्न देकर देवताओं की और हव्य देकर पितरों की पूजा करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।
3. यदि तुम परिवार की रक्षा और पशुओं का पालन करोगे तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।
4. यदि तुम आय-व्यय और धान्य को भरकर गृहस्थी को संभालो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।
5. यदि तुम देवालय, बाग, कूप, बावड़ी आदि बनाकर पूजा करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।
6. यदि तुम अपने नगर में अथवा किसी और शहर में जाकर वाणिज्य व्यवसाय करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।
7. यदि तुम किसी पराई स्त्री को स्पर्श न करो तो मैं तुम्हारे वाम अंग में आउंगी।

बिदाई
बाबुल यानी पिता के घर से अपने घर की ओर जाती है वधू, बिदाई देते हैं सभी प्रियजन। बचपन की सखियाँ, पिता का दुलार, माँ की गोद, भाई के स्नेह, बहनों के प्यार से बने घर-आंगन को छोड़कर कन्या अब अपने नये घर की ओर चलती है। भीगी आँखों से अपनी लाडली को बिदा करते स्वजनों की ओर देखते अपरिचित की आँखे भी छलक जाती है। हाथ में धान भरकर पीछे की ओर उछालती बेटी मायके की कामना करती है। बिदाई है नवसृजन के लिए पुनर्जन्म।

डोला परछन
जब डोला घर के दरवाजे पर रुकता है तब माँ डोली के ऊपर सूपा रखकर पांच मुट्ठी नमक रखती है। ऊपर से मसूर को इस पार से उस पार करती है। यह एक प्रकार का टोटका होता है। इसके बाद मायके के झेंझरी में जिस पर धान भरा होता है, बहू को उस पर पैर रखकर उतारा जाता है। अंदर जाकर बधू मायके के चांवल को 7 डिब्बा भरती है उसे हर बार वर पैरों की ठोकर से गिरा देता है। चांवल भरने के ढंग से वधू की कार्यकुशलता का अंदाज लगाते हैं। डोला परछन का आशय वधू का नये घर में स्वागत और लक्ष्मी का अभिनन्दन है।

कंकन-मउर/धरमटीका
यह रस्म मूलतः वर-वधू के संकोच को दूर करने का उपक्रम है। इसमें कन्या के घर से लाये लोचन पानी को एक परात में रखकर दुल्हा-दुल्हन का मड़वा के पास एक दूसरे का कंकन छुड़वाया जाता है। फिर लोचन पानी में कौड़ी, सिक्का, मुंदरी, माला खेलाते हैं। जिसमें वर एक हाथ से तथा वधू दोनों हाथ से सिक्का को ढूंढते हैं। जो सिक्का पाता है वह जीत जाता है। यह नेंग 7 बार किया जाता है। इसके बाद सभी टिकावन टिकते हैं जिसे धरमटीका कहते हैं।

बाजा (वाद्य)
वैवाहिक संस्कार में वाद्ययंत्र का प्रमुख स्थान है। वाद्ययंत्र प्रत्येक रस्म के भाव को प्रदर्शित करते हैं। जहां एक ओर निसान नाचने के लिए विवश करता है वहीं दूसरी ओर मोहरी विभोर कर देता है। दफडा, टिमऊ और झुमका विवाह संगीत को और समृद्ध कर देते हैं।

साभार - चंद्रभूमि अंक 2,  दाउलाल चन्द्राकर, महासमुंद, मोबाईल नं. 9926162300
 
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