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हीरालाल काव्योपाध्याय

1856 को जन्मे हीरालाल काव्योपाध्याय का मूलग्राम - राखी (भाठागांव), तहसील कुरुद, जिला धमतरी माना जाता है। उनके पिता का नाम बालाराम एवं माता का नाम राधाबाई था। प्राथमिक शिक्षा रायपुर से एवं मेट्रिक की शिक्षा 1874 में जबलपुर से उत्तीर्ण की। 1875 में उन्नीस वर्ष कि अवस्था में जिला स्कूल में सहायक शिक्षक नियुक्त हुए। स्वयमेव उर्दू, उड़िया, बंगाली, मराठी, गुजराती का उन्होंने अभ्यास किया। 1881 में उनकी कृति 'शाला गीत चन्द्रिका' को नवल किशोर प्रेस लखनऊ ने प्रकाशित किया। इस कृति के लिए बंगाल के राजा सौरेन्द्र मोहन टैगोर ने उन्हें सम्मानित किया। धमतरी के एंग्लो वर्नाकुलर टाऊन स्कूल में हेडमास्टर की स्थाई नौकरी उन्हें मिली। इसके पहले कुछ दिन वे बिलासपुर में भी पदस्थ रहे। वे धमतरी नगरपालिका एवं डिस्पेंसरी कमेटी के अध्यक्ष भी रहे।

11 सितंबर 1884 को राजा सौरेन्द्र मोहन टैगोर ने पुनः स्वर्ण पदक देकर उन्हें सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें अपनी कृति 'दुर्गायन' के लिए मिला। दुर्गा सप्‍तशती को दोहों में उन्होंने प्रस्तुत किया। इस विशिष्ट कार्य के लिए ही उन्हें स्वर्ण पदक देकर राजा टैगोर ने सम्मान दिया। इस कृति के लिए बंगाल संगीत अकादमी के द्वारा उन्हें काव्योपाध्याय की उपाधि से विभूषित किया गया। बच्चों के लिए उन्होंने 'बालोपयोगी गीत' भी लिखा जो संगीतबद्ध था। इसे भी बंगाल संगीत अकादमी ने पुरस्कृत किया। वे रोग ग्रस्त थे इसी दौरान 'गीत रसिक' कृति की रचना की। अंग्रेजी में उनकी कृति 'रॉयल रीडर क्रमांक 1 व 2' भी प्रकाशित हुई। सातवीं एवं अंतिम कृति 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' है। रचनाकारों में से अधिकांश ने जीवन की संध्या में अपनी श्रेष्ठतम कृति का सृजन किया। हीरालाल जी जीवन भर के अनुभव की ताकत से छत्तीसगढ़ी व्याकरण को तैयार करते रहे। इसी कृति को अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली। अंग्रेजी में अनुवाद हुआ और लगातार उस पर चर्चा होती रही। हीरालाल काव्योपाध्याय अपनी रचनाओं के कारण अमर हैं। भिन्न भिन्न भाषाओँ में अनुवादित होकर अत्यंत चर्चा में रही इस कृति कि उम्र 115 वर्ष हो गई है।

अपनी विद्वता के कारण जाति से कुछ इस तरह ऊपर उठे कि जाति वाले भी उन्हें सगा के रूप में न धर सके। मात्र 34 वर्ष की उम्र में अक्टूबर 1890 को उनका देहांत हो गए।

जब 1885 में हीरालाल काव्योपाध्याय जी ने छत्तीसगढ़ी व्याकरण लिखा तब खड़ी बोली का कोई सर्वमान्य और प्रामाणिक व्याकरण नहीं था सन् 1890 में प्रकाशित 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण' ऐसी कृति है जिसका अनुवाद महान भाषा शास्त्री सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के जिल्द तीस, भाग 1 में प्रकाशित कराया। उनका अभिमत था कि यह ग्रन्थ भारतीय भाषाओँ पर प्रकाश डालने का प्रयास करने वालों के लिए प्रेरणास्पद है। इसी कृति को संशोधित क्र पं.लोचन प्रसाद पाण्डेय ने मध्यप्रदेश शासन में प्रकाशित करवाया।

ग्रियर्सन ने इस कृति को दो भाग में प्रकाशित किया। एक में विशुद्ध व्याकरण व दूसरे में मुहावरे, कहावतें, पहेलियां, लोकगीत, कथा, कहानी इत्यादि। कहानी और लोकगाथा के लिए चर्चित छत्तीसगढ़ कि चुनिंदा कथाओं को भाग 2 में गियर्सन ने प्रकाशित किया। गियर्सन ने आभार व्यक्त करते हुए हीरालाल जी के सम्बन्ध में लिखा कि हीरालाल जी जैसे विद्वानों के कारण ही हम भिन्न-भिन्न भाषाओं के बीच सेतु बनाने के अपने प्रयास में सफल हो पाते हैं। हीरालाल काव्योपाध्याय इसी नाम से जाने जाते हैं। सम्भवतः हीरालाल जी ही छत्तीसगढ़ी के ऐसे विलक्षण महापुरुष हैं जिनके नाम के साथ उनकी जाति नहीं जुड़ती। वे चन्द्रनाहू कुर्मी अर्थात चन्द्राकर परिवार में जन्मे थे।

हरि ठाकुर ने लिखा है कि - उनकी कुछ कविताओं का इटालियन भाषा में सिग्नोर कैनिनी ने अनुवाद भी किया है।

प्रमुख रचनाएं -
  1.  शाला गीत चन्द्रिका
  2.  दुर्गायन
  3.  बालोपयोगी गीत
  4.  रॉयल रीडर भाग 1 (अंग्रेजी में)
  5.  रॉयल रीडर भाग 2 (अंग्रेजी में)
  6.  गीत रसिक
  7.  छत्तीसगढ़ी व्याकरण

साभार : डॉ.ब्रजभूषण सिंह आदर्श, डॉ.परदेशी राम वर्मा, स्व.हरि ठाकुर आदि के लेखों एवं अन्य स्रोतों से संकलित (चन्द्रभूमि अंक 2)

4 comments:

SJ ने कहा…

राखी ह उल्बा वाला हरे का धमतरी सीमा म बसे गांव

Shashikant Madhury ने कहा…

नो हे जी

अंजोर ने कहा…

बहुत ही ऐतिहासिक जानकारी सर। मैं आपके ब्लॉग ल केउ साल ले सरलग पढ़त हवं। छत्तीसगढ़ के बारे म गजब अकन तइहा के बात जाने बर मिलथे आपके कलम ले।

Preetam Sahu ने कहा…

A grammar of chhattisagad daylect

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