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रामलाल चन्द्राकर




रामलाल चन्द्राकर एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका जन्म ग्राम खौली, थाना खरोरा, जिला रायपुर में 3 जनवरी 1920 को हुआ था। बड़े भाई नरसिंग प्रसाद चन्द्राकर, दुर्गाप्रसाद सिरमौर के साथ राष्‍ट्रीय विद्यालय रायपुर में पढ़ते थे, वे कीकाभाई के दुकान पर पिकेटिंग में शामिल थे। सन् 1932 में वहाँ पुलिस द्वारा लाठी चार्ज करने पर उनका सिर फट गया तथा उन्हें गिरफ्तार कर महासमुंद के जंगल में छोड़ दिया उस वर्ष से उनकी पढ़ाई बंद हो गई।

सन् 1933 में गांधी जी रायपुर आये तो उनके दर्शनार्थ रामलाल जी ग्राम खौली से 34 कि.मी. की पदयात्रा कर शुक्ल भवन, रायपुर पहुंचे। गांधी जी को नजदीक से देखने सुनने के बाद देश भक्ति कि भावना जागृत हुई, प्रायमरी शिक्षा हुई थी आगे की पढ़ाई स्थगित हो गई। वे रायपुर में रहने लगे। डॉ.त्रेतानाथ तिवारी व नंदकुमार दानी के संपर्क में रहकर काम किया फिर कुरुद चले गए। वहां मिडिल 5वीं से 7वीं तक पढ़ाई की तब उन्हें मास्टरी की नौकरी मिल गई। जिसे उन्होंने नहीं किया।

मिडिल शिक्षा उपरांत श्यामशंकर मिश्र प्रधान पाठक कुरुद (निवासी गिरसुल, देवभोग) के माध्यम से महंत लक्ष्मीनारायण दास के पास रायपुर पहुंचे। सन् 1938 में स्वयं सेवक के रूप में प्रवेश किया। 1942 में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने सुचारू रूप से चलाने, प्रचार व प्रसार आदि में सन् 1944 तक सक्रिय रहे। रामलाल, मनोहर लाल श्रीवास्तव दोनों बाबूलाल शर्मा वैद्यराज सत्तीबाजार, रायपुर के मकान में रहते थे। दोनों मिलकर सैकलोस्टाइल, हिंदी टाइपराइटर को रखकर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ प्रचार-प्रसार का कार्य करते थे। शहर का काम मनोहर लाल तथा जिले व जिले से बाहर के काम की जिम्मेदारी रामलाल की थी।

नन्दलाल तिवारी ग्राम दरबा, सेठ छोटे लाल ग्राम खट्टी, भगवान धर दीवान ग्राम तुमगांव, जीवन गिरजी ग्राम लभरा, जयदेव सतपथी तोषगाँव, बुधवा साव, लक्ष्मी लाल जैन व लालजी चन्द्राकर महासमुंद, लखनलाल गुप्ता आरंग, लक्ष्मीप्रसाद तिवारी बलौदाबाजार, चित्रकांत जायसवाल व चितले वकील बिलासपुर, द्वारिका नाथ तिवारी व नरसिंह प्रसाद अग्रवाल दुर्ग, जगतराम ग्राम बेलर, जुड़ावन दास वैष्णव ग्राम साहनी खार (सिहावा), भोपाल राव पवार व शिवरतन पूरी धमतरी आदि लोगों को प्रचार-प्रसार की सामग्री पहुँचाया करते थे।

2 अक्टूबर 1942 को कांग्रेस भवन में जहाँ बंदूकधारी पुलिस का कड़ा पहरा था, झंडा फहराने की योजना बनी जिम्मेदारी रामलाल को मिली। वे आशाराम दुबे (मास्टर बैजनाथ स्कूल) से संपर्क कर सीढ़ी आदि की व्यवस्था कर स्कूल में रखवा दी। सुबह 4 बजे कांग्रेस भवन पहुंचे और भालू राऊत (चौकीदार) से साइड में सीढ़ी लगवाया व चढ़कर छत में पहुंचे सामने खम्भे में रस्सी बांधकर झंडा फहराकर चुपचाप उतरकर सीढ़ी हटवाकर वापस आ गए।

15 अगस्त 1947 को आजादी की खुशी का उत्सव के रूप में कांग्रेस भवन से जुलूस निकाला गया जिसमें दूधाधारी मंदिर से हाथी लाया गया। हाथी पर भारत माता के फोटो के साथ रामलाल चन्द्राकर को बिठाकर जुलूस पूरे शहर भर घुमाया गया था।

आजादी के बाद छत्तीसगढ़ खेतीहर संघ के अध्यक्ष रहे। आपातकाल में 18 जुलाई 1975 से 21 मार्च 1977 तक मीसा में बंद रहे। वे मार्केटिंग सोसायटी आरंग के दो बार अध्यक्ष रहे।

सन् 1977 से 1980 तक मंदिरहसौद विधानसभा के प्रथम विधायक बने। विरेंद्र कुमार सकलेचा म.प्र. मंत्रिमंडल में सहकारिता राज्यमंत्री रहे।

छत्तीसगढ़ प्रदेश स्वतंत्रता संग्राम सेनानी संघ के वे मृत्युपर्यन्त कोषाध्यक्ष रहें।

27 जून 2009 को आजादी के जुझारू सेनानी का निधन हो गया।

चन्दूलाल चन्द्राकर

चन्दूलाल चन्द्राकर का जन्म 1 जनवरी 1921 को दुर्ग जिले के निपानी गांव के कृषक परिवार में हुआ । आप बाल्यावस्था से ही मेधावी रहे । दुर्ग में प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ग्रामिणों की समस्या का समाधान करने में भी आप सदैव तत्पर रहते थे । आपने बी.ए. की पढ़ाई राबर्टसन कालेज जबलपुर से की थी राजनीति के पूर्व आप सक्रिय पत्रकारिता से जुड़े । द्वितीय विश्वयुद्ध के समय से आप अभ्यस्त पत्रकारों जैसी सधी पत्रकारिता करने लगे । 

1945 से पत्रकार के तौर पर आपकी ख्याति होने लगी । आपके समाचार हिन्दुस्तान टाइम्स सहित देश-विदेश के अन्य अखबारों में प्रकाशित होने लगे । आपको नौ ओलंपिक खेलों और तीन एशियाई खेलों की रिपोर्टिंग का सुदीर्घ अनुभव रहा । राष्ट्रीय अखबार दैनिक हिन्दुस्तान में संपादक के रुप में आपने सेवाएं दी । छत्तीसगढ़ से राष्ट्रीय समाचार पत्र के संपादक पद पर पहुंचने वाले आप प्रथम थे । युद्धस्थल से भी आपने निर्भीकतापूर्वक समाचार भेजे । आपने विश्व के लगभग सभी देशों की यात्रा पत्रकार के रुप में की ।  

1970 में पहली बार लोकसभा के लिए निर्वाचित होने के साथ ही सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने की शुरुआत हुई और लोकसभा हेतु पांच बार निर्वाचित हुए । पर्यटन, नागरिक उड्डयन, कृषि, ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री का दायित्व संभालते हुए आपने देश की सेवा की । अखिल भारतीय कमेटी के महासचिव और मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता के रुप में आप सक्रिय रहे । छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण सर्वदलीय मंच के अध्यक्ष रह कर राज्य आंदोलन को नई शक्ति प्रदान की ।

अपनी लेखनी से ज्वलंत मुद्दे उठाने, बहस की गुंजाइश तैयार करने वाले पत्रकारों में चन्दूलाल चंद्राकर को सम्मानजनक स्थान प्राप्त है । 2 फरवरी 1995 को आपका निधन हुआ । निर्भीक पत्रकारिता से छत्तीसगढ़ का नाम देश में रोशन करने वाले व्यक्तित्व से नई पीढ़ी प्रेरणा ग्रहण करे और मूल्य आधारित पत्रकारिता को प्रोत्साहन मिले, इसके लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में पत्रकारिता के क्षेत्र में चन्दूलाल चन्द्राकर फेलोशिप स्थापित किया है ।

राजनीति-

1970 उपचुनाव, 1971, 1980, 1984, 1991

लोकसभा क्षेत्र दुर्ग (छ.ग.) से कुल पांच बार चुने गये
जून 1980 से जनवरी 1982 तक केन्द्रीय राज्य मंत्री पर्यटन एवं नागरिक उड्डयन
1982 में ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव
जनवरी 1985 से जनवरी 1986 तक केन्द्रीय कृषि व ग्रामीण विकास राज्यमंत्री
1986 से 1988 अध्यक्ष मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी
1964 से 70 अध्यक्ष भारत सरकार प्रिंटिंग प्रेस कर्मचारी यूनियन महासंघ
1975 1995 अध्यक्ष स्टील कर्मचारी यूनियन
1975 उपाध्यक्ष इंटक मध्यप्रदेश
1975 में सदस्य भारतीय शिष्टमंडल युनेस्को, पेरिस,  कार्लमाक्र्स की मृत्यु शताब्दी बर्लिन में कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व
1993 से 1995 तक प्रवक्ता अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी
1994 से 1995 अध्यक्ष छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण मंडल
अनेक बार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, इस्पात एवं खनिज मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वित्त मंत्रालय के सलाहकार समितियों के सदस्य रहे।

चंदूलाल चंद्राकर जी के कुछ यादगार चित्र

राजीव गांधी व अर्जुन सिंह जी के साथ

अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा जी के साथ 

श्रीमती इंदिरा गांधी व श्‍यामाचरण शुक्‍ल जी के साथ


पुरुषोत्तम लाल कौशिक



पुरुषोत्तम लाल कौशिक जी का जन्म 24 सितंबर 1930 को महासमुंद में एक प्रतिष्ठित कुर्मी परिवार में हुआ था। आपका विवाह श्रीमती अमृत कौशिक से 1945 में हुआ।  सन् 1947 में आपने रायपुर सालेम हाईस्कूल से मेट्रिक की परीक्षा पास की तथा 1951 में सागर विश्वविद्यालय से बी.ए. की उपाधि प्राप्त की, 1954 में नागपुर विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. करने के पश्‍चात आपने वकालत प्रारंभ कर दी। 

सन् 1972 से 1977 तक समाजवादी पार्टी से महासमुंद विधानसभा सीट से विधायक चुने गए।

1977 में 6वीं लोकसभा के लिए रायपुर से जनता पार्टी के सांसद चुनकर, मार्च 1977 से  जुलाई 1979 तक केंद्रीय मंत्री पर्यटन एवं नागर विमानन तथा जुलाई 1979 से जनवरी 1980 तक सूचना एवं प्रसारण मंत्री पद को सुशोभित किया।

1984-85 में 9वीं लोकसभा के लिए दुर्ग से जनता दल के सांसद रहे।

1984 अध्यक्ष, रेलवे कान्वेंशन कमेटी
1984-85  अध्यक्ष, भारतीय रेलवे मेन्स यूनिय
29 जनवरी 1990  सदस्य, जनरल काउंसिल, आईसीसीआर
17 जुलाई 1990  अध्यक्ष, रेलवे कान्वेंशन कमेटी
 24 जुलाई 1990  सदस्य, सामान्य प्रयोजन समिति
1990  समिति के सलाहकार, इस्पात और खान मंत्रालय

विदेश यात्रा: फ्रांस, जर्मनी, इटली, नेपाल, स्विट्जरलैंड, ब्रिटेन, सोवियत संघ

 खेल और क्लब: छात्र जीवन के दौरान खेल और खेल में भाग लिया, वॉलीबॉल में सागर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व;

सामाजिक क्रियाएँ: कृषि मजदूरों और आदिवासियों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक उत्थान के लिए खेतीहर संघ का गठन, सहकारी आंदोलन में रुचि, पिछड़ेपन के खिलाफ एक जन अभियान शुरू किया।

रूचि : संगीत और नृत्य, खेल, बागवानी, पढ़ने में

स्थायी पता: रायपुर सहकारी आवास समिति, राजेन्द्र नगर,  चौबे कॉलोनी, रायपुर

सिकलिंग : सिकल सेल रोग

सिकल रोग एक आनुवांशिक रोग है जो मां-बाप के जीन्स के माध्यम से बच्चों में आता है। इस रोग में लाल रक्त कण (हिमोग्लोबिन) हंसिए के रूप में परिवर्तित हो जाता हैं। अंग्रेजी में हंसिए को सिकल कहते हैं। इसलिए इस बीमारी का नाम सिकल सेल रोग पड़ा। सिकलिंग वाले रक्त कण जल्दी-जल्दी नष्ट हो जाते हैं। इस कारण मरीज को हर समय रक्त की कमी (एनीमिया) रहती है। इस रोग से शरीर के कई अंग प्रभावित होते हैं। हड्डी रोग, पित्ताशय की पथरी, तिल्ली का बढ़ जाना, बार-बार फेफड़ों में संक्रमण, गर्भपात आदि से जीवन मुश्किल हो जाता है।

यह बीमारी छुआछूत, बीमारी खान-पान या समागम से होने वाली बीमारी नहीं है। यह एक जेनेटिक बीमारी अर्थात् जीन्स में हुए परिवर्तन के कारण होने वाली समस्या है। जीन्स हमारे शरीर का ब्लू प्रिंट है। जैसे हमारे जीन्स होंगे वैसे ही हमारे शरीर की रचना होगी। चिकित्सा इतिहास के अध्ययन से मालूम पड़ता है कि हजारों वर्ष पहले कुछ क्षेत्रों में हमारे हिमोग्लोबिन के जीन्स में परिवर्तन हुआ। हमारे गोलाकार लाल रक्त कण (लाल रक्त कण) हंसिए के रूप में परिवर्तित हो गए। यह परिवर्तन उन क्षेत्रों में हुआ जहां मलेरिया बहुतायत से पाया जाता था। जंगल, के मलेरियाग्रस्त क्षेत्र अविकसित रहे और पिछड़ गए। परिणामस्वरूप यह रोग अविकसित, आदिवासी दुरूह क्षेत्रों की जनजातियों में ज्यादा पाया जाता है। कुछ वर्षों पूर्व यह धारणा थी कि यह बीमारी सिर्फ काले अफ्रीकन नीग्रो लोगों में पाई जाती है। वस्तुत: अफ्रीका के अलावा यह बीमारी सउदी, अरेबिया, बेहरीन, ग्रीस, टर्की, इटली आदि के साथ-साथ भारत में बहुतायत में पाई जाती है यह चौंकाने वाला सत्य है कि विश्व के समस्त सिकल सेल मरीजों की संख्या में से आधे मरीज भारत में रहते है। भारत में यह बीमारी मध्यभारत (पश्चिमी गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ उड़ीसा आधे के पास होनी वाली मध्य पट्टी) में ज्यादा व्याप्त है।

इतनी बड़ी समस्या के संबंध में खामोशी का एक कारण यह भी था कि हमारे प्रशासक और योजनाकार यह सोचते रहे कि सिकल एक अनुवांशिक रोग है। और इसका कोई इलाज नहीं है। इन्हें लगा कि इसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। अत: इस पर समय और पैसा खर्च करना व्यर्थ है। यह एक बड़ी भूल थी। यह एक सत्य है कि अनुवांशिक रोगों के लिए जड़ से नष्ट करने वाला कोई निश्चित इलाज नहीं है। सत्य यह भी है कि कैन्सर, मधुमेह (डायबिटीज), एड्स आदि के लिए भी कोई निश्चित उपचार नहीं है। इसके बावजूद एड्स, डायबिटीज, कैन्सर आदि के संबंध में जनजागरण किया जाता है। इनकी रोकथाम और लक्षणों के उपचार की व्यवस्था की जाती है। सिकल के साथ यह न्याय नहीं किया गया।

सिकल सेल ग्रस्त छह राज्यों से घिरे होने की वजह से छत्तीसगढ़ में यह बीमारी मौत का तांडव मचा रही है। आलम यह है कि सिकल प्रभावित 7 फीसदी बच्चे तो छह महीने के अंदर काल के ग्रास बन जाते है। सिकल रोगी अगर 50 वर्ष जी गए तो आश्चर्य माना जाता है। सूबे में पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी के करीब हैं और सबसे अधिक पिछड़े वर्ग के लोग ही सिकल सेल से प्रभावित हैं। इनमें से कुर्मी, साहू जैसी जातियों में तो 22 प्रतिशत तक लोग सिकल सेल की चपेट में हैं। सिकल सेल से सबसे अधिक वे ही प्रभावित हैं। बच्चों की शादी में बाधा आने की आशंका से लोग इस अनुवांशिक बीमारी के बारे में बताना नहीं चाहते और इस बीमारी के लगातार फैलने की वजह भी यही है।  शादी के बाद संतान उत्पति की प्रक्रिया में यह बीमारी फैलती जाती है। दो सिकल सेल रोगी की अगर शादी हो गई तो उनकी संतान भी सिकल रोगी होगी। इसलिए शादी के पहले अगर सिकल कुंडली मिला ली जाए तो 70 फीसदी तक बीमारी को कंट्रोल किया जा सकता है। मगर इसके लिए सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। क्योंकि जनजागृति ही सिकल सेल का एकमात्र उपाय है और सामाजिक संगठनों को साथ लिए बगैर जनजागृति संभव नही है।

जिस व्यक्ति को माता या पिता से सिर्फ एक सिकल जीन मिलता है उसे 'सिकल वाहक' (केरियर) कहते हैं। इनमें रोग के कोई लक्षण नहीं होते। वे स्वास्थ्य माने जाते हैं। उन्हें किसी इलाज की आवश्यकता नहीं है। जिस व्यक्ति को माता और पिता दोनों से सिकल जीन मिलते हैं वे ही 'सिकल रोगी' कहलाते हैं। इन्हें इलाज पुर्नवास की आवश्यकता होती है।  विवाह पूर्व सिकल की जांच कर सिकल के दो वाहकों या रोगियों के बीच विवाह न करने की सलाह देकर सिकलग्रस्त बच्चों की उत्पत्ति रोकी जा सकती है। सायप्रस और बेहरीन जैसे देशों में शादी के पहले सिकल हेतु रक्त परीक्षण कराना अनिवार्य है। ऐसे उपायों से उन देशों में सिकलग्रस्त बच्चों की पैदाईश में बहुत कमी आई है। यदि सिकल के दो वाहकों ने आपस में विवाह कर भी लिया है तो सिर्फ 25 प्रतिशत बच्चों (अर्थात् 4 में एक) के सिकलग्रस्त होने का अंदेशा रहता है। गर्भावस्था में गर्भजल परीक्षण (एनिमियो सेनटेसीस) कराकर अनचाहे शिशु से छुटकारा पाया जा सकता है। सिकल रोगग्रस्त बच्चों में रक्त की कमी रहती है। बच्चे कमजोर होते हैं इसलिए संक्रमण (इंफेक्शन) का खतरा बढ़ जाता है। ऐसे में बच्चों का टीकाकरण, पेनिसीलिन की गोलियां फोलिक एसिड की गोलियां देकर उनका जीवन दीर्घायु बनाया जा सकता है। सिकल रोग के कारण होने वाले प्रभाव एवं विकारों के इलाज से भी सिकल मरीज को लंबा जीवन प्राप्त हो सकता है।

जैमेका जैसी देशों में सिकल रोगियों को सही इलाजपुनर्वास की सुविधा के चलते सिकल रोगी 65 वर्ष तक की आयु प्राप्त करते हैं। व्यवस्था के अभाव में हमारे यहां सिकल रोगी की औसत आयु कम है। बच्चों में मृत्यु दर अधिक है। इस क्षेत्रीय बीमारी पर मौलिक चिंतन और दीर्घकालीन कार्य योजना की आवश्यकता है। यह हमारा दर्द हमें ही इसे समझना होगा।

सिकल सेल रोग के सम्बंध में अधिक जानकारी आप विकिपीडिया से प्राप्त कर सकते हैं। 






छत्तीसगढ़ी व्यंजन - खाइ खजेना

छत्तीसगढ़ में खान-पान की विशिष्ट और दुर्लभ परंपराएं है। आदिवासी समाज में प्रचलित 'वनोपज' से लेकर जनपदीय संस्कृति तक 'कलेवा' अपना रुप बदलता है। पारंपरिक व्यंजन सिर्फ उत्सव-त्यौहार में स्वाद बदलने का जरिया मात्र नही, वे हमें हमारी विरासत से भी परिचित कराते है। समय के साथ 'स्वाद का सहज संसार' भी बदलता गया है। आधुनिक होते परिवेश में नई पीढ़ी को अपने सांस्कृतिक मूल्यों से परिचय कराना हमारे बस में है।

छत्तीसगढ़ के जनसाधारण का व्यवसाय कृषि है। अनेक प्रकार के उत्कृष्ठ प्रजाति के धान छत्तीसगढ़ के "धान के कटोरा" नाम को सार्थक करते हैं। यद्यपि गेंहूं, दाले व तिलहनों का भी उत्पादन होता है, तथापि मुख्य उपज धान ही है। यहाँ के लोगों का मुख्य भोजन चावल है, यद्यपि चावल की अपेक्षा सस्ता होने के कारण आजकल गेंहूं भी यहां के निवासियों के भोजन का हिस्सा बन गया है। सामान्यतः दोनो समय भात मिले तो कई प्रकार के शाक यहाँ के लोगों का मुख्य भोजन है। नदी-तालाबों में पाई जाने वाली मछलियाँ भी शौक से खाई जाती है। पहले रात के समय के बचे भात में पानी डालकर, सबेरे बासी खाने का रिवाज है। खमनीकरण के कारण बासी में ऐसे तत्वों का समावेश होता है, जिससे लोग बहुत काम कर सकते थे, पर अब बासी खाने का रिवाज धीरे-धीरे चाय ने ले लिया है।

छत्तीसगढ़ स्वाद के मामले मे बेजोड़ है। यहाँ मागंलिक अथवा गैर मांगलिक दोनों अवसरों पर घरों में एक से एक व्यंजनों का चलन है। नमकीन, मीठे, व्यंजनों की इन श्रृंखला में भुने हुए, भाप में पकाए और तले प्रकार तो है, और इनसे अलग हटकर भी व्यंजन बनाने की रिवाज है। इन खाद्य पदार्थो में उन्ही वस्तुओं का इस्तेमाल होता है जिनकी जरुरत रोजमर्रा की रसोई में हम किया करते है। जैसे आटा, ज्वार, चना, तिल, जौ, चावल, चोकर, गुड़, गोंद आदि। ये मिठाईयाँ न तो किसी सांचे से ढ़लती है और न ओवन के गणितीय तापमान से इनका नाता है। चकमकी और रंगीन आभा वाली बाजारु मिठाईयाँ के सामने ये मिठाईयाँ खासी विनम्र और सादगी युक्त तो है, पौष्टिकता के मुकाबले मे भी इनका जवाब नही।

यूं तो हर प्रदेश में अपने उत्पादन के अनुसार अलग-अलग पकवान बनते हैं। छत्तीसगढ़ के अधिकांश पकवानों में चांवल का प्रयोग होता है। धुंसका-अंगाकर, चीला-चौंतेला, फरा-अइरसा, देहरौरी केवल चांवल के ही बनते हैं। खुरमीं-पपची में गेहूं एवं चावल के आटे का उपयोग होता है। ठेठरी, करी, बूंदी, बेसन से बनते हैं। भोजों में बरा-सोंहारी (पूरी), तसमई (खीर) बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ में महिलाओं के तीन प्रमुख व्रत हैं - तीजा, बेवहा, जूंतिया और भाई-जूंतिया। इन व्रतों में चीला-बिनसा का फरहार बनता है, जिसको सबको खिलाया जाता है।  कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशेष तरह के व्यंजन बनते हैं। शादी में छींट के लड्डू अवश्य बनते हैं, इसमें पैसे आदि भरकर बेटी के ससुराल विशेष तौर पर भेजे जाते हैं। हरेली में बबरा चीला बनता है। तो राखी तीजा में ठेठरी खुरमी, पोला में मीठा खुरमा के आटे की गोली तलकर बैल की पूजा होती है। होली में अईरसा कुसली बनती है।

नया चावल आने पर चौन्सेला, चीला, फरा का आनंद लिया जाता है। नया गुड आने पर कतरा पकुआ, दहरौरी बनाते है। सावन में दूध का फरा बनता है। भादो में ईढर - जिसे हिंदी में अरबी और छत्तीसगढ़ में कोचई कहा जाता है इसके नए पत्तों से ईढर बनाकर खाने में मजा आता है। बरा (बड़ा) तो सभी के सुख दुःख का साथी है। शादी में भी बरा और मृत्यु भोज में भी बरा। पितृ पक्ष में तो पन्द्रह दिन प्रत्येक घर में बरा बनाया जाता है, कौवों को खिलाया जाता है और खुद भी खाया जाता है। इस तरह हमारे छत्तीसगढ़ में सभी त्योहारों और ऋतुओं के हिसाब से व्यजन बनाकर खाया जाता है और खिलाया जाता है।

आइए नजर डालें छत्तीसगढ़ी स्वाद की इस झांपी में जहां फरा, पीठिया, छिटहा लाडू, मुठिया, चौंसेला, अइरसा, देहरौरी, चीला, सोंहारी, पपची, ठेठरी, खुरमी सहित और भी बहुत कुछ गुण-ग्राहकों की प्रतीक्षा में है। ममत्व और श्रम सींच-सींच कर बनाई गई इन घरेलू मिठाईयों का एक मर्तबा स्वाद लीजिए। ।

चीला
यह तीन प्रकार से बनाया जाता है - सादा चीला, नूनहा चीला(नमकीन) तथा गुरहा चीला(मीठा)। चीला बनाने के लिए चावल रात में भिगाया जाता है। सबेरे पानी निकालकर छाया में सुखाते हैं। फिर ढ़ेकी में पीसकर आटा बनाया जाता है, जिसे सांट कहते हैं। सांट में पानी डालकर घोल बनाते हैं। घोल जितना पतला रहता है, चीला भी उसी अनुपात में पतला होता है। बड़े-मोटे तवे को चूल्हे में रखकर गर्म करते हैं। कपड़ा या रूई को तेल में डुबा कर तवे में घुमाते हैं। तेल लगे तवे के सांट के घोल को कलछी से पतला फैलाते हैं। फिर उसे ढंक देते हैं। कुछ देर बाद ढक्कन निकाल चीला को पलटकर सेंकते हैं। दोनों तरफ सिक जाने पर चीला को थाली में उतार दूसरा चीला ढाला जाता है। चावल के आटे में नमक डालने से नुनहा चीला बनता है एवं घोल में गुड़ डाल देने से गुरहा चीला। इन दोनों चीले का स्वाद हरी मिर्च और पताल की चटनी से बढ़ जाता है ।

चौंसला
गर्म पानी में सांट को गूंथते हैं। कभी नमक डाल दिया जाता है, तो कभी बिना नमक के ही गूंथ कर छोटी-छोटी लोई बनाते है। हथेली में तेल लगाकर लोई को फैलाया जाता है। आकार में पूरी से छोटी किन्तु कुछ मोटी होती है। फिर गर्म तेल में छानते हैं। छोटे आकार के कारण एक साथ कई चौंसले छन जाते हैं। इसे पूरी का पूरक कहा जा सकता है। हरेली, पोरा, छेरछेरा आदि में विशेष रूप से बनता है। इसे गुड़ या अचार के साथ खाते हैं।

फरा
फरा दो प्रकार से बनाते हैं। गाँव में जब गन्ने की पेरोई होती है, तब ताजे रस को गर्म करने के लिए रखा जाता है। चावल के आटे को गरम पानी से गूंथकर हथेलियों से पतली बाती के समान बनाकर रखते हैं। उबलते रस में फरा को डालकर पकाते हैं। पक जाना पर इलायची डालते हैं। गन्ने का रस ना रहने पर गुड़ के घोल से भी फरा बनाते हैं। खाने में यह स्वादिष्ठ होता है। नूनहा फरा बनाते समय आटा में नमक डालकर गुंथते हैं। फिर हथेली से छोटी लोइ को बर कर फरा बना कर रखते हैं। भगोने में पानी उबालने रखते हैं। उस पर चलनी रखते हैं। उबलने पर चलनी में फरा रखकर ढ़ंक देते हैं। दस मिनट बाद फरा भाप में पक जाता है। एक कड़ाही में तेल डाल कर सरसों और मिर्च का बघार लगाकर फरा पर डाल दिया जाता है। अब फरा के खाने के लिए तैयार है।

अइरसा
छत्तीसगढ़ी पकवानों में सबसे स्वादिष्ठ तथा बनाने में सबसे कठिन है। गुड़ की चासनी बनाते हैं। इसे गरम-गरम ही सांठ में डालकर गूंथते हैं। मुलायम होने पर छोटी-छोटी लोई तोड़कर हथेलियों में फैलाते हैं। छोटी पूरी के आकार का होने पर तिल पर रखते हैं, जिससे एक तरफ तिल चिपक जाता है। फिर उसे तेल में तलते हैं। यद्यपि गुड़ की चासनी का सही पाग बनाना कठिन है, और गर्म चासनी में गूंथना भी काफी कठिन है, पर बनने पर यह बेहद स्वादिष्ठ होता है।

अइरसा एक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी व्यंजन है। इस मीठे व्यंजन को बनाने की विधि अत्यंत सरल है। पहले चावल को रातभर (सामान्यतः छह-सात घंटे ठीक इडली की तरह) भींगा कर रखा जाता है, फिर पानी को निकालकर पीस लिया जाता है, अब इसमें गुड़ अच्छी तरह से मिला कर इसे बड़े के आकार का बना तेल में तल लिया जाता है। इसे ऐसे ही खाया जाता है। सावधानीः भजिया की तरह इसे फुलाने की लिए खाने का सोडा इस्तेमाल न करें अन्यथा बड़े के आकार का यह व्यंजन बूंदी के समान बन जाएगा।

देहरौरी
यह नायाब छत्तीसगढ़ी पकवान है, जिसे बनाने में दक्षता अपेक्षित है। दरदरे चावल से बनी देहरौरी अपनी अलग पहचान रखती है। चासनी में भींगी देहरौरी को रसगुल्ले का देसी रुप कह सकते हैं।  इसके लिए चावल को भिगाकर छाया में सुखाया जाता है। फिर ढ़ेकी में या जाता में इसे दरदरा पीसा जाता है,जिसे दर्रा कहते है। दर्रा में घी का मोयन डालकर दही में गूंथते हैं। छोटी लोई तोड़कर हथेलियों में रखते हैं तथा इसे बरा के समान बनाकर तेल में तलते हैं। अब शक्कर या गुड़ की दो तार की चासनी बनाकर देहरौरी को चासनी में डुबाते हैं। दूसरे दिन तक देहरौरी में रस अच्छी तरह भिद जाता है। गुड़ का देहरौरी अधिक स्वादिष्ठ होता है।

खुरमी
गेहूं तथा चावल के आटे के मिश्रण से निर्मित मीठी प्रकृति का लोकप्रिय व्यंजन है। गुड़ चिरौंजी और नारियल इसका स्वाद बढ़ा देते हैं। तीन भाग गेंहूं आटा तथा एक भाग चावलों के मोटे पिसे आटे के मिश्रण में घी का मोयन किया जाता है। गुड़ का गाढ़ा घोल बनाते हैं। आटा में चिरौंजी, सूखे नारियटल के टुकड़े एवं मूंगफली दाना डालकर कड़ा गूंथते हैं। छोटी लोई बनाकर हाथ की मुठ्ठियों में दबाते हैं। कई लोग लोई को टोकनी से भी दबाते हैं। फिर इन्हें गर्म किए हुए तेल में मंद आंच से पकाते हैं। अच्छी तरह पक जाने पर कड़ाही से निकलते हैं, इस तरह खुरनी तैयार हो जाती है। आज कल तो शक्कर या गुड़ में गुथे आटा को बेल कर चौकोन काटकर तल लेते हैं।

पपची
पपची बनाने में दक्षता की आवश्यकता होती है। तीन भाग गेहूं में एक भाग चावल के आटे के मिश्रण में घी का मोयन डालकर खूब कड़ा आटा गूंथा जाता है। छोटी-छोटी लोई बना पटे से दबा कर गोल, चपटा आकार दिया जाता है। तेल को गर्म कर कुछ ठंडा करते हैं। इसमें पपचियाँ डालकर मंद आंच में तलते हैं। गुड़ या शक्कर की दो तार की चाशनी बनाते हैं। चाशनी को झारे से फेंटकर पपची लपेटकर अलग करते हैं। कुछ देर में चाशनी सूख जाती है। अधिक मोयन और मंद आंच में पकने के कारण यह कुरमुरा और स्वादिष्ठ होता है। शक्कर की अपेक्षा गुड़ से पागने पर अधिक स्वाद आता है। शादी-ब्याह, गवन-पठौनी में बहुत बड़ी पपचियाँ बनतीं हैं।

कुसली
गुझिया ही छत्तीसगढ़ी में कुसली कहलाता है। आटा या मैदा में मोयन डालकर गूंथते हैं। खोया को भूनते हैं। उसमें थोड़ी भुनी हुई सूजी, किसा हुआ नारियल, चिरौंजी और पिसी शक्कर मिलाते हैं। खोया ना मिलने पर कई लोग आटा को भूनकर उसी का भरावन बनाते हैं। बीच में भरावन रखकर दोनों ओर से चिपकाकर कटर से काट लेते हैं। पहले तो हाथ से ही बहुत सुंदर गुजिया बनाई जाती थी। अब तो गुझिया मेकर आ गया है। फिर घी या तेल से तलते हैं। इस प्रकार स्वादिष्ठ कुसली तैयार हो जाती है।

बरा
हिन्दी में इसे बड़ा कहते हैं, जो कि उड़द दाल से बनता है। इसके लिए छिलके वासी उड़द दाल के भिगा कर धोते हैं। फिर छिलका निकालकर पीसते हैं। नमक, हरी मिर्च, कटा अदरक डालकर पीढ़ी फेंटते हैं। फिर इसकी लोई बनाकर हथेली में गोल बनाकर तेल में तलते हैं। शादी-ब्याह तथा पितर में बड़े अवश्य बनते हैं। बरा को गर्म पानी में डालकर निकालते हैं, फिर दही में डालकर दहीबड़ा बनाते हैं।

बबरा
गुड़ को पानी में घोलकर गाढ़ा घोल बनाते हैं। इसमें चावल या गेहूं के आटा को घोलकर चम्मच से गरम तेल में डालते हैं। दोनों तरफ से तल कर निकाल लाता हैं। मातृ नवमी के दिन बबरा अवश्य बनाया जाता है।

बिनसा
बहुत कुछ पनीर की तरह ही बनता है। दूध को चूल्हे में गर्म करता हैं। उबाल आने पर खट्टा दही डालते हैं, जिससे दूध फट जाता है। अब स्वादानुसार गुड़ या शक्कर डालकर कुछ देर तक पकने देते हैं। इस प्रकार बना बिनसा चीला या पूरी के साथ खाया जाता है।

ठेठरी
बेसन में स्वादानुसार नमक और आजवाइन डालकर तेल का मोयन देते हैं। पानी से बेसन को गूंथकर छोटी लोई बनाकर पटे में रखते हैं और हथेली से घुमाकर बत्ती के समान बनाते हैं। फिर इसे इच्छानुसार गोल या लंबी आकृति में बना कर तेल में पकाते व छानते हैं।

करी

यह बेसन का मोटा सेव है। नमक डालकर नमकीन करी बनाते हैं, तथा बिना नमक के करी से लड्डू बनाते हैं। दुःख-सुख के अवसरों में करी का गुरहा लड्डू बनाया जाता है ।

बूंदी
बेसन को फेटकर पतला घोल बनाकर झोर से बूंदी छानते हैं। बूंदी को शक्कर में पाग कर खाते हैं। इसका लड्डू भी बनाते हैं। रायता और कड़ी के लिए भी बूंदी बनाई जाती है।

तसमई
खीर को छत्तीसगढ़ी में तसमई कहते हैं। इसके लिए दूध में चावल डालकर पकाते हैं। दूध के गाढ़ा होने तक चावल पक जाता है तथा इसमें शक्कर डालकर फिर पकाते हैं। पक जाने पर पिसी इलायची, किशमिश, काजू तथा नारियल डालते हैं। हर भोज में तसमई अवश्य परोसा जाता है।

भजिया
उड़द की पीठी या बेसन दोनों से भजिया बनाने का रिवाज है। पत्तल में परोसने का यह आवश्यक आहार है।

छत्तीसगढ़ के चन्द्रनाहू कुर्मियों के गोत्र की सूची

( क्षेत्रवार गोत्र की सूची विवाह योग्य युवक-युवती परिचय प्रपत्रों से तैयार की गई है )

रायपुर, महासमुंद, उडीसा
ईश्‍वर, कटेल, कश्यप, कस्तुरी, कांशी, काशिल, कौशिक, गांगे, गुटकहा, गौतम, चंद्रखाम, चंवरबंबार, टेकशनिचर, बघेल, भारद्वाज, श्यामसंतान, श्यामसुंदर, श्रृंगी, श्रृंगीऋषि, सदाफल, सांडिल्य, सोनखईचा, सोनखच्चा, सोनताहिद, हरदिहा,

दुर्ग राज
अग्रकस्तुरी, कटहल, कठेल, कश्यप, कौशल, कौशिक, खड़ईत, खण्डेन, खण्डेल, खरई, गुटकहा, गुटकुरिया, गौतम, घीकुंवर, घृतलहरा, चंवरबंबार, चंवलबंबार, चमन, चिमनगढ़िया, च्यवनऋषि, जीतजौहर, टेकर, टेकशनिचर, टेकस्य, टोडरमल, तोरणमल, दूधखिचड़ी, धीलहरा, धीवलहरा, धृतलहरे, निमनगटिया, पाण्डेल, बघेल, बरमहा, बोधेगंगा/बोधगंगा, ब्रम्हा, भरतद्वाज, भरमभोज, भरमाहा, भारद्वाज, भीकुंवर, महानंद, राजधुरंधर, शोभाश्रृंगार, सदाफल, सबकश्रृंगार, सभाश्रृंगार, समुंदफेन, समुंदलहरा, सर्वश्रृंगार, सहस/साहस, सांख्य, सांख्यान, सांख्यायन, सिरमौर, सीताफल, सुपलीश्रृंगार, सुपेसिंगार, सूर्यबंबार, सूर्यवंशी, सोनकच्चा, सोनखईचा, सोनखरचा, सोनताहिद, सोलहश्रृंगार, सौनक, हड़दाह, हड़धिया, हरिद्वार

लवन राज
सोनखरचा

कुरुद राज
कड़हीबोईर, कश्यप, कांशी, खंडई, खरडेत, गंगा, गुटकहा, गौतम, चंवरबंबार, बलियार/बलियारा, भारद्वाज, लाखेशेरिया, श्रृगिणी, सांडिल्य, सोनखरचा, सोनखांड

कवर्धा राज
अकालचुमा, अकाशजुआ, अगस्त, अगस्तकस्तुरी, अत्री, आगर/आगार, कठेल, कठैल, कश्यप, कसौंदा, कस्तुरबा, कस्तुरी मालगार / कस्तुरी मलागर, कस्तुरी, कांशी, काशी, कुलमित्र, कोनकुरिया, कौनिया, कौशिक मालगार, कौशिक, कौशिकमलागर, कौशिल, खौलीया, गढ़, गरप, घीसागर, चंवरबंबार, चमनप्रकाश, चवन, चांदनी, चांदनी, जिगारगुड़िया, झुमकहा, टूझार, तिलपहारी, तुलसी, तेलिकसवाई, धृतसागर, नटायु, नरसिंह, नहायु, नाग, नागकेशर, नागकेशर, पंडेर, पटेल, पड़ेर, परायण, परेड, बघधर्रा, बघमार, बघेल, बाघमार, ब्रम्ह, ब्रम्हा, मनपाला, मलगार, मागले, रसगरिया, लश्गरी, लसखरिया, लसगरिया, व्यास, शिवसागर, शुंभखरचा, शुम्भखैंचा, शेषभोग, श्यामसुंदर, सकलपुरिहा, सदाफल, सदासुहागी, सदासोहागी, सांजिल्य, सांडिल्य, सागर, साड़ियां, साढ़िया, सीदुरिया, सीनकोरिया, सुम्भखैंचा, सेनरिया, सेमकोरिया, सेमकोरिया, सेमरिया, सोनकर, सोनकुरिया, सोनकोडिया, सोनकोडिया, सोनखर्चा, सोनपिटली, सोनपिल्ली, सोनभद्र, सोनभाठीया, सोनश्रृंगार, सोलटांगिन, सोलटांगिये, सोलहश्रृंगार, हंसगरुड़, हड़दुबहा, हरदुआ, हरदेव, हरदेवा, हरिदुआ, हरिद्वार, हरिद्वारा,

राजनांदगांव, खैरागढ़, छुईखादन, बालोद, डौंडी, राजहरा
कौशिक, समुद्रफेन, सांडिल्य

बेमेतरा
भारद्वाज

बिलासपुर, रायगढ़, जांजगीर
ईश्‍वर, कश्यप, घीवसागर, घोरहा, चतुरमेहलिया, चन्द्रा, त्रिकाऊ, पोखरिया, राहीन, सदाफल, समुंदटकरी, सांख्यनदी, सांडिल्य, सोनडैहा

जगदलपुर, नारायणपुर, बस्तर
सूर्य

मुंगेली क्षेत्र
(अप्राप्त)

शिवरीनारायण, नवागढ़, पामगढ़
(अप्राप्त)

रतनपुर क्षेत्र
(अप्राप्त)

मस्तुरी पामगढ़
(अप्राप्त)

कोटा, रतनपुर, तखतपुर, लोरमी
कश्यप

शादी-ब्याह के अवसर पर लगने वाली सामग्रीयां

शादी में तेलमाटी, चुलमाटी, मंगरोहन, दौतेला, मायन और चिकट में लड़का और लड़की दोनों के लिए एक ही तरह के सामान की जरूरत होती है।

सगाई :  
लड़के वालों के लिए  (11 व्यक्ति)
     1. साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज लड़की के लिए
     2. श्रृंगार का सामान
     3. अंगूठी या रुपया
     4. मिठाई, फल, मेवा  आदि
        (रुपया जरूरी बाकि सभी ऐच्छिक)

लड़की वालों के लिए
     1. कपड़ा लड़के के लिए
     2. अंगूठी लड़के के लिए
     3. धोती समधी के लिए
     4. नारियल अन्य मेहमानों के लिए

लगन :
     1. दोनों पक्ष से एक-एक नारियल
     2. हल्दी,
     3. सुपाड़ी
     4. अगरबत्ती
     5. फूल
     6. पिंवरा चांऊर
     7. मिठाई
     8. पूजा का सामान

मंगरोहन परघाई :
     1. दो मंगरोहन डूमर लकड़ी से बना हुआ एक पीढ़ी
     2. पिंवरा चांऊर
     3. मौली धागा
     4. फूल
     5. चौंक के लिए चांवल आटा
     6. दिया बाती
     7. बढ़ई के लिए चांऊर दार
     8. पूरा पूजा का सामान हुम सहित

लगन पुजहा बिदाई :
     1. साड़ी, पेटीकोट, ब्लाउज दुल्हन के लिए
     2. 5, 7 या 9 प्रकार का गहना चढ़ाव के लिए
     3. श्रृंगार का सामान
     4. चप्पल
     5. लड़की के लिए मौर (भांवर के लिए)
     6. आठ तेल चघ्घी मौर छिनवाला, बीजना
     7. एक साड़ी दादी के लिए
     8. एक साड़ी नानी के लिए
     9. सात सिंघोलिया छोटा (भांवर के लिए)
     10. बड़ा सिंघोलिया सिंदूर भरा हुआ
     11. सात अन्जरी चांवल और सात नारियल ढेड़हीन के लिए
     12. दो अन्जरी चांवल और दो नारियल पण्डित के लिए
     13. एक अन्जरी चांवल और एक नारियल नानी के लिए
     14. एक अन्जरी चांवल और एक नारियल नाऊ ठाकुर के लिए
     15. एक टोकरी चांवल पूरा भरा सिग का ढेड़हीन के लिए
     16. पूरे श्रृंगार का सामान ढेड़हीन के लिए
     17. एक पाव हल्दी डिब्बे में
     18. एक पाव शुद्ध घी डिब्बे में
     19. एक पाव सिक्सा या तिल
     20. ग्यारह फल अन्जरी के लिए
     21. एक टोकरी लड्डू व मिठाई
     22. 360 नग सुपारी

तेलमाटी एवं तेल :
     1. एक सब्बल
     2. सवा गज सफेद कपड़ा
     3. दो सिल लोढ़ा (सिल पौढ़ना के लिए)
     4. दो ढोलक
     5. एक पाव भीगा उड़द दाल
     6. एक किलो कच्ची हल्दी
     7. माहुर, कटारी
     8. दस तेल चघ्घी मौर
     9. एक नारियल गौरी गणेश के लिए
     10. एक नारियल हथवा
     11. चार करसा
     12. दो नांदी
     13. पुजा का पुरा सामान
     14. एक पाव कच्चा तिल का तेल हल्दी में डालने के लिए
     15. आठ बांस (मड़वा व दरवाजे के मड़वा के लिए)
     16. दो पूरा कांसी
     17. सात टुकनी
     18. चौक पुरने के लिए चांवल आटा
     19. दादी के लिए साड़ी

दौतेला :
     1. दो पर्रा नया (बीच में थाली में पूजा का सामान रखकर)
     2. एक साड़ी नाऊन ठाकुराईन के लिए
     3. ढेड़हीन के लिए साड़ी (जितनी बुआ और बहनें हैं)
     4. पिसी गीली हल्दी शीतला माता के लिए
     5. घर में बनी हुई मिठाई
     6. चांऊर दार बैइगा के लिए
     7. देवी देवता के लिए चढ़ौतरी

मायन :
     1. माय रोटी नया टोकरी में गेंहूं और गुड़ की मीठी सोंहारी
     2. एक साड़ी मायन उपसहीन के लिए (चाची - भाभी)
     3. पतरी
     4. पिंवरा चांऊर
     5. फूल
     6. मौली धागा
     7. चौक पुरने के लिए चांवल आटा
     8. नारियल एवं पूजा का पूरा सामान

चिकट :
     1. माता-पिता के लिए लड़की के मामा के यहाँ से साड़ी, पेंट शर्ट या धोती
     2. माता के लिए श्रृंगार का पूरा सामान मायके से
     3. चांऊर दार पहाटनिन के लिए मायके से
     4. दही चांऊर टिकने के लिए
     5. चिकट वालों के लिए शरबत

नहडोरी :
     1. साड़ी मेहमान महिलाओं के लिए
     2. धोती पुरुषों के लिए
     3. गरम पानी
     4. हरदाही के लिए गीली हल्दी

बरतिया बिदा के लिए (लड़के वालों के लिए):
     1. दो नया पर्रा में सेके हुए चांउर के आटे और गुड़ से बना 2 बड़ा-बड़ा गौरी गणेश, सात लड्डू
     2. आटे की लोई व कुंवारी सूत पाणिग्रहण के लिए
     3. दही, दूध, शहद, गंगाजल
     4. उड़द दाल
     5. पूजा का पूरा सामान, मौली धागा, सुपारी, हल्दी सहित
     6. बंगला पान
     7. हुम के लिए नया कटोरी
     8. हवन सामग्री व आम की लकड़ी
     9. एक धोती पण्डित के लिए
     10. एक मौली धागा
     11. लाई लगभग एक किलो
     12. पीला कपड़ा गठबंधन के लिए
     13. कपड़ा सारा जांवर के लिए
     14. एक नारियल और एक धोती समधी के लिए
     15. मुडढक्की साड़ी
     16. ढेड़हीन नेंग के लिए रुपया
     17. पण्डित की दक्षिणा के लिए रुपया
     18. पहाटिया, धोबी, नाऊ ठाकुर के लिए नेंग के रुपय
     19. सुपा सजा हुआ, मौर सौंपने के लिए
     20. लड़के के शादी का कपड़ा, मौर, नया जूता, टिका, मेकप का सामान
     21. कौर खिलाने के लिए लड्डू व बालूशाही

डोला परछन :
     1. ग्राम देवी देवता के लिए नारियल
     2. पूजा का पूरा सामान
     3. डोला परछन के लिए धान
     4. एक चादर
     5. सात गेंहूं के आटे की लोई
     6. बिछावन के लिए नया साड़ी या धोती (नवईन के लिए)
     7. माय चांऊर नापने के लिए 2 छोटी टोकरी

कंकन मौर :
     1. पूजा का पूरा सामान
     2. चूड़ी रंग
     3. खेलने के लिए कौड़ी
     4. एक सिक्का
     5. माला
     6. टिकने के लिए पीला चांऊर

डाहर छेकउनी : ढेड़हीन को देने के लिए नेग

भांवर :
     1. सिल
     2. लाई एक किलो
     3. गठबंधन का कपड़ा
     4. फूल हार, वर माला
     5. कच्चा दूध
     6. पूजा का पूरा सामान
     7. सिंदूर
     8. सारा जांवर के लिए कपड़ा
     9. गवन के बछवा
     10. चूड़ी रंग (लोचन पानी)
     11. रंगोली

बारात बिदाई :
     1. धोती बुजुर्गों के लिए (दादा, चाचा, पिता के लिए)
     2. कपड़ा दुल्हे के लिए
     3. लड़की को कपड़ा श्रृंगार का सामान आदि
     4. शरबत (भाई द्वारा पिलाने के लिए)
     5. सजा हुआ सुपा, चांवल के लिए आटे का दिया
     6. दो मुट्ठी सफ़ेद चांउर
     7. भरे गागर में डालने के लिए सिक्का
     8. कौर खिलाने के लिए लड्डू, बालूशाही


संकलन - श्रीमती फुटेनिया चन्द्राकर, सिरसाकला

रचनायें आमंत्रित

अपने अतीत की ओर लौटना वर्तमान में अपनी सुरक्षा और गौरव की तलाश का आधार बन सकता है। चन्द्राकर समाज सदियों से अपनी अलग पहचान बनाए हुए स्वाभिमानी समाज रहा है। हमारा समाज थिरकता, गाता-गुनगुनाता, खेती करता गांवों में बसा और अपनी अलग जातिय अस्मिता का आग्रही व राजनीतिक रूप से चैतन्य रहा है।

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