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छत्तीसगढ़ी व्यंजन - खाइ खजेना

छत्तीसगढ़ में खान-पान की विशिष्ट और दुर्लभ परंपराएं है। आदिवासी समाज में प्रचलित 'वनोपज' से लेकर जनपदीय संस्कृति तक 'कलेवा' अपना रुप बदलता है। पारंपरिक व्यंजन सिर्फ उत्सव-त्यौहार में स्वाद बदलने का जरिया मात्र नही, वे हमें हमारी विरासत से भी परिचित कराते है। समय के साथ 'स्वाद का सहज संसार' भी बदलता गया है। आधुनिक होते परिवेश में नई पीढ़ी को अपने सांस्कृतिक मूल्यों से परिचय कराना हमारे बस में है।

छत्तीसगढ़ के जनसाधारण का व्यवसाय कृषि है। अनेक प्रकार के उत्कृष्ठ प्रजाति के धान छत्तीसगढ़ के "धान के कटोरा" नाम को सार्थक करते हैं। यद्यपि गेंहूं, दाले व तिलहनों का भी उत्पादन होता है, तथापि मुख्य उपज धान ही है। यहाँ के लोगों का मुख्य भोजन चावल है, यद्यपि चावल की अपेक्षा सस्ता होने के कारण आजकल गेंहूं भी यहां के निवासियों के भोजन का हिस्सा बन गया है। सामान्यतः दोनो समय भात मिले तो कई प्रकार के शाक यहाँ के लोगों का मुख्य भोजन है। नदी-तालाबों में पाई जाने वाली मछलियाँ भी शौक से खाई जाती है। पहले रात के समय के बचे भात में पानी डालकर, सबेरे बासी खाने का रिवाज है। खमनीकरण के कारण बासी में ऐसे तत्वों का समावेश होता है, जिससे लोग बहुत काम कर सकते थे, पर अब बासी खाने का रिवाज धीरे-धीरे चाय ने ले लिया है।

छत्तीसगढ़ स्वाद के मामले मे बेजोड़ है। यहाँ मागंलिक अथवा गैर मांगलिक दोनों अवसरों पर घरों में एक से एक व्यंजनों का चलन है। नमकीन, मीठे, व्यंजनों की इन श्रृंखला में भुने हुए, भाप में पकाए और तले प्रकार तो है, और इनसे अलग हटकर भी व्यंजन बनाने की रिवाज है। इन खाद्य पदार्थो में उन्ही वस्तुओं का इस्तेमाल होता है जिनकी जरुरत रोजमर्रा की रसोई में हम किया करते है। जैसे आटा, ज्वार, चना, तिल, जौ, चावल, चोकर, गुड़, गोंद आदि। ये मिठाईयाँ न तो किसी सांचे से ढ़लती है और न ओवन के गणितीय तापमान से इनका नाता है। चकमकी और रंगीन आभा वाली बाजारु मिठाईयाँ के सामने ये मिठाईयाँ खासी विनम्र और सादगी युक्त तो है, पौष्टिकता के मुकाबले मे भी इनका जवाब नही।

यूं तो हर प्रदेश में अपने उत्पादन के अनुसार अलग-अलग पकवान बनते हैं। छत्तीसगढ़ के अधिकांश पकवानों में चांवल का प्रयोग होता है। धुंसका-अंगाकर, चीला-चौंतेला, फरा-अइरसा, देहरौरी केवल चांवल के ही बनते हैं। खुरमीं-पपची में गेहूं एवं चावल के आटे का उपयोग होता है। ठेठरी, करी, बूंदी, बेसन से बनते हैं। भोजों में बरा-सोंहारी (पूरी), तसमई (खीर) बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ में महिलाओं के तीन प्रमुख व्रत हैं - तीजा, बेवहा, जूंतिया और भाई-जूंतिया। इन व्रतों में चीला-बिनसा का फरहार बनता है, जिसको सबको खिलाया जाता है।  कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशेष तरह के व्यंजन बनते हैं। शादी में छींट के लड्डू अवश्य बनते हैं, इसमें पैसे आदि भरकर बेटी के ससुराल विशेष तौर पर भेजे जाते हैं। हरेली में बबरा चीला बनता है। तो राखी तीजा में ठेठरी खुरमी, पोला में मीठा खुरमा के आटे की गोली तलकर बैल की पूजा होती है। होली में अईरसा कुसली बनती है।

नया चावल आने पर चौन्सेला, चीला, फरा का आनंद लिया जाता है। नया गुड आने पर कतरा पकुआ, दहरौरी बनाते है। सावन में दूध का फरा बनता है। भादो में ईढर - जिसे हिंदी में अरबी और छत्तीसगढ़ में कोचई कहा जाता है इसके नए पत्तों से ईढर बनाकर खाने में मजा आता है। बरा (बड़ा) तो सभी के सुख दुःख का साथी है। शादी में भी बरा और मृत्यु भोज में भी बरा। पितृ पक्ष में तो पन्द्रह दिन प्रत्येक घर में बरा बनाया जाता है, कौवों को खिलाया जाता है और खुद भी खाया जाता है। इस तरह हमारे छत्तीसगढ़ में सभी त्योहारों और ऋतुओं के हिसाब से व्यजन बनाकर खाया जाता है और खिलाया जाता है।

आइए नजर डालें छत्तीसगढ़ी स्वाद की इस झांपी में जहां फरा, पीठिया, छिटहा लाडू, मुठिया, चौंसेला, अइरसा, देहरौरी, चीला, सोंहारी, पपची, ठेठरी, खुरमी सहित और भी बहुत कुछ गुण-ग्राहकों की प्रतीक्षा में है। ममत्व और श्रम सींच-सींच कर बनाई गई इन घरेलू मिठाईयों का एक मर्तबा स्वाद लीजिए। ।

चीला
यह तीन प्रकार से बनाया जाता है - सादा चीला, नूनहा चीला(नमकीन) तथा गुरहा चीला(मीठा)। चीला बनाने के लिए चावल रात में भिगाया जाता है। सबेरे पानी निकालकर छाया में सुखाते हैं। फिर ढ़ेकी में पीसकर आटा बनाया जाता है, जिसे सांट कहते हैं। सांट में पानी डालकर घोल बनाते हैं। घोल जितना पतला रहता है, चीला भी उसी अनुपात में पतला होता है। बड़े-मोटे तवे को चूल्हे में रखकर गर्म करते हैं। कपड़ा या रूई को तेल में डुबा कर तवे में घुमाते हैं। तेल लगे तवे के सांट के घोल को कलछी से पतला फैलाते हैं। फिर उसे ढंक देते हैं। कुछ देर बाद ढक्कन निकाल चीला को पलटकर सेंकते हैं। दोनों तरफ सिक जाने पर चीला को थाली में उतार दूसरा चीला ढाला जाता है। चावल के आटे में नमक डालने से नुनहा चीला बनता है एवं घोल में गुड़ डाल देने से गुरहा चीला। इन दोनों चीले का स्वाद हरी मिर्च और पताल की चटनी से बढ़ जाता है ।

चौंसला
गर्म पानी में सांट को गूंथते हैं। कभी नमक डाल दिया जाता है, तो कभी बिना नमक के ही गूंथ कर छोटी-छोटी लोई बनाते है। हथेली में तेल लगाकर लोई को फैलाया जाता है। आकार में पूरी से छोटी किन्तु कुछ मोटी होती है। फिर गर्म तेल में छानते हैं। छोटे आकार के कारण एक साथ कई चौंसले छन जाते हैं। इसे पूरी का पूरक कहा जा सकता है। हरेली, पोरा, छेरछेरा आदि में विशेष रूप से बनता है। इसे गुड़ या अचार के साथ खाते हैं।

फरा
फरा दो प्रकार से बनाते हैं। गाँव में जब गन्ने की पेरोई होती है, तब ताजे रस को गर्म करने के लिए रखा जाता है। चावल के आटे को गरम पानी से गूंथकर हथेलियों से पतली बाती के समान बनाकर रखते हैं। उबलते रस में फरा को डालकर पकाते हैं। पक जाना पर इलायची डालते हैं। गन्ने का रस ना रहने पर गुड़ के घोल से भी फरा बनाते हैं। खाने में यह स्वादिष्ठ होता है। नूनहा फरा बनाते समय आटा में नमक डालकर गुंथते हैं। फिर हथेली से छोटी लोइ को बर कर फरा बना कर रखते हैं। भगोने में पानी उबालने रखते हैं। उस पर चलनी रखते हैं। उबलने पर चलनी में फरा रखकर ढ़ंक देते हैं। दस मिनट बाद फरा भाप में पक जाता है। एक कड़ाही में तेल डाल कर सरसों और मिर्च का बघार लगाकर फरा पर डाल दिया जाता है। अब फरा के खाने के लिए तैयार है।

अइरसा
छत्तीसगढ़ी पकवानों में सबसे स्वादिष्ठ तथा बनाने में सबसे कठिन है। गुड़ की चासनी बनाते हैं। इसे गरम-गरम ही सांठ में डालकर गूंथते हैं। मुलायम होने पर छोटी-छोटी लोई तोड़कर हथेलियों में फैलाते हैं। छोटी पूरी के आकार का होने पर तिल पर रखते हैं, जिससे एक तरफ तिल चिपक जाता है। फिर उसे तेल में तलते हैं। यद्यपि गुड़ की चासनी का सही पाग बनाना कठिन है, और गर्म चासनी में गूंथना भी काफी कठिन है, पर बनने पर यह बेहद स्वादिष्ठ होता है।

अइरसा एक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी व्यंजन है। इस मीठे व्यंजन को बनाने की विधि अत्यंत सरल है। पहले चावल को रातभर (सामान्यतः छह-सात घंटे ठीक इडली की तरह) भींगा कर रखा जाता है, फिर पानी को निकालकर पीस लिया जाता है, अब इसमें गुड़ अच्छी तरह से मिला कर इसे बड़े के आकार का बना तेल में तल लिया जाता है। इसे ऐसे ही खाया जाता है। सावधानीः भजिया की तरह इसे फुलाने की लिए खाने का सोडा इस्तेमाल न करें अन्यथा बड़े के आकार का यह व्यंजन बूंदी के समान बन जाएगा।

देहरौरी
यह नायाब छत्तीसगढ़ी पकवान है, जिसे बनाने में दक्षता अपेक्षित है। दरदरे चावल से बनी देहरौरी अपनी अलग पहचान रखती है। चासनी में भींगी देहरौरी को रसगुल्ले का देसी रुप कह सकते हैं।  इसके लिए चावल को भिगाकर छाया में सुखाया जाता है। फिर ढ़ेकी में या जाता में इसे दरदरा पीसा जाता है,जिसे दर्रा कहते है। दर्रा में घी का मोयन डालकर दही में गूंथते हैं। छोटी लोई तोड़कर हथेलियों में रखते हैं तथा इसे बरा के समान बनाकर तेल में तलते हैं। अब शक्कर या गुड़ की दो तार की चासनी बनाकर देहरौरी को चासनी में डुबाते हैं। दूसरे दिन तक देहरौरी में रस अच्छी तरह भिद जाता है। गुड़ का देहरौरी अधिक स्वादिष्ठ होता है।

खुरमी
गेहूं तथा चावल के आटे के मिश्रण से निर्मित मीठी प्रकृति का लोकप्रिय व्यंजन है। गुड़ चिरौंजी और नारियल इसका स्वाद बढ़ा देते हैं। तीन भाग गेंहूं आटा तथा एक भाग चावलों के मोटे पिसे आटे के मिश्रण में घी का मोयन किया जाता है। गुड़ का गाढ़ा घोल बनाते हैं। आटा में चिरौंजी, सूखे नारियटल के टुकड़े एवं मूंगफली दाना डालकर कड़ा गूंथते हैं। छोटी लोई बनाकर हाथ की मुठ्ठियों में दबाते हैं। कई लोग लोई को टोकनी से भी दबाते हैं। फिर इन्हें गर्म किए हुए तेल में मंद आंच से पकाते हैं। अच्छी तरह पक जाने पर कड़ाही से निकलते हैं, इस तरह खुरनी तैयार हो जाती है। आज कल तो शक्कर या गुड़ में गुथे आटा को बेल कर चौकोन काटकर तल लेते हैं।

पपची
पपची बनाने में दक्षता की आवश्यकता होती है। तीन भाग गेहूं में एक भाग चावल के आटे के मिश्रण में घी का मोयन डालकर खूब कड़ा आटा गूंथा जाता है। छोटी-छोटी लोई बना पटे से दबा कर गोल, चपटा आकार दिया जाता है। तेल को गर्म कर कुछ ठंडा करते हैं। इसमें पपचियाँ डालकर मंद आंच में तलते हैं। गुड़ या शक्कर की दो तार की चाशनी बनाते हैं। चाशनी को झारे से फेंटकर पपची लपेटकर अलग करते हैं। कुछ देर में चाशनी सूख जाती है। अधिक मोयन और मंद आंच में पकने के कारण यह कुरमुरा और स्वादिष्ठ होता है। शक्कर की अपेक्षा गुड़ से पागने पर अधिक स्वाद आता है। शादी-ब्याह, गवन-पठौनी में बहुत बड़ी पपचियाँ बनतीं हैं।

कुसली
गुझिया ही छत्तीसगढ़ी में कुसली कहलाता है। आटा या मैदा में मोयन डालकर गूंथते हैं। खोया को भूनते हैं। उसमें थोड़ी भुनी हुई सूजी, किसा हुआ नारियल, चिरौंजी और पिसी शक्कर मिलाते हैं। खोया ना मिलने पर कई लोग आटा को भूनकर उसी का भरावन बनाते हैं। बीच में भरावन रखकर दोनों ओर से चिपकाकर कटर से काट लेते हैं। पहले तो हाथ से ही बहुत सुंदर गुजिया बनाई जाती थी। अब तो गुझिया मेकर आ गया है। फिर घी या तेल से तलते हैं। इस प्रकार स्वादिष्ठ कुसली तैयार हो जाती है।

बरा
हिन्दी में इसे बड़ा कहते हैं, जो कि उड़द दाल से बनता है। इसके लिए छिलके वासी उड़द दाल के भिगा कर धोते हैं। फिर छिलका निकालकर पीसते हैं। नमक, हरी मिर्च, कटा अदरक डालकर पीढ़ी फेंटते हैं। फिर इसकी लोई बनाकर हथेली में गोल बनाकर तेल में तलते हैं। शादी-ब्याह तथा पितर में बड़े अवश्य बनते हैं। बरा को गर्म पानी में डालकर निकालते हैं, फिर दही में डालकर दहीबड़ा बनाते हैं।

बबरा
गुड़ को पानी में घोलकर गाढ़ा घोल बनाते हैं। इसमें चावल या गेहूं के आटा को घोलकर चम्मच से गरम तेल में डालते हैं। दोनों तरफ से तल कर निकाल लाता हैं। मातृ नवमी के दिन बबरा अवश्य बनाया जाता है।

बिनसा
बहुत कुछ पनीर की तरह ही बनता है। दूध को चूल्हे में गर्म करता हैं। उबाल आने पर खट्टा दही डालते हैं, जिससे दूध फट जाता है। अब स्वादानुसार गुड़ या शक्कर डालकर कुछ देर तक पकने देते हैं। इस प्रकार बना बिनसा चीला या पूरी के साथ खाया जाता है।

ठेठरी
बेसन में स्वादानुसार नमक और आजवाइन डालकर तेल का मोयन देते हैं। पानी से बेसन को गूंथकर छोटी लोई बनाकर पटे में रखते हैं और हथेली से घुमाकर बत्ती के समान बनाते हैं। फिर इसे इच्छानुसार गोल या लंबी आकृति में बना कर तेल में पकाते व छानते हैं।

करी

यह बेसन का मोटा सेव है। नमक डालकर नमकीन करी बनाते हैं, तथा बिना नमक के करी से लड्डू बनाते हैं। दुःख-सुख के अवसरों में करी का गुरहा लड्डू बनाया जाता है ।

बूंदी
बेसन को फेटकर पतला घोल बनाकर झोर से बूंदी छानते हैं। बूंदी को शक्कर में पाग कर खाते हैं। इसका लड्डू भी बनाते हैं। रायता और कड़ी के लिए भी बूंदी बनाई जाती है।

तसमई
खीर को छत्तीसगढ़ी में तसमई कहते हैं। इसके लिए दूध में चावल डालकर पकाते हैं। दूध के गाढ़ा होने तक चावल पक जाता है तथा इसमें शक्कर डालकर फिर पकाते हैं। पक जाने पर पिसी इलायची, किशमिश, काजू तथा नारियल डालते हैं। हर भोज में तसमई अवश्य परोसा जाता है।

भजिया
उड़द की पीठी या बेसन दोनों से भजिया बनाने का रिवाज है। पत्तल में परोसने का यह आवश्यक आहार है।

6 comments:

रवि रतलामी ने कहा…

वा भइया, मजा आ गे. बिकट दिन से देहरौरी बनाय के रेसिपि खोजत रेंहव, अभी इहां मिलिस.
धन्यवाद.

Unknown ने कहा…

धन्यवाद भाई राजेश चंद्राकर जी
छत्तीसगढ़ के व्यंजनों के बनाने की विधि बताने के लिए

Unknown ने कहा…

आपका आभार

Unknown ने कहा…

आपका आभार

Unknown ने कहा…

Breakfast lunch or dinner ko Chhattisgarhi me kya kehtey hain

food house club ने कहा…

Tirto khana, teen sanjh ke khana, mundiyar k khana

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